Avataran

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Avataran

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100.00 90.00

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100.00 90.00

Author: Gurudutt

Availability: 4 in stock

Pages: 300

Year: 1983

Binding: Hardbound

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Hindi Sahitya Sadan

Description

अवतरण

प्रथम परिच्छेद

बम्बई से दिल्ली लौट रहा था। फ्रन्टियर मेल फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सीट रिजर्व कराकर यात्रा हो रही थी। डिब्बे में एक साहब और थे। सायंकाल गाड़ी में सवार हुआ तो बिस्तर लगा दिया। दूसरे यात्री ने पहले ही बर्थ पर बिस्तर लगाया हुआ था। मैंने बिस्तर बिछाया तो वह नीचे सीट पर बैठ गया।

गाड़ी चल पडी। साथी यात्री बार-बार मेंरी ओर देखता और मुस्कराकर कुछ कहने के लिए तैयार होता, परन्तु कहता कुछ नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था कि कोई उसको कुछ कहने से रोक रहा है। मैं उसकी इस हिचकिचाहट को देख रहा था, परन्तु स्वयं को उससे सर्वथा अपरिचित जान कुछ कहने का मेंरा भी साहस नहीं हो रहा था।

मैंने अपने अटेची-केस में से ‘रीडर्स डाईजेस्ट’ निकाला और पढ़ना आरंभ कर दिया। वे महाशय सीट पर ही पल्थी मार कर बैठ गये। उनकी आँखें मुँदी हुई थीं, इसलिए मैंने समझा कि वे सन्ध्योपासना कर रहे होंगे। अगले स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हुई। भोजन के लिए डाईनिंग कार में जाने के विचार से मैंने ‘रीडर्स डाईजेस्ट’ को अटैची में रख, उसको ताला लगा सीट पर से उठ खड़ा हुआ तो देखा कि सहयात्री भी उतरने के लिए तैयार खड़ा है। मैंने कहा, ‘‘मैं खाना खाने के लिए जा रहा हूँ। और आप….।’’

‘‘मैं भी चल रहा हूँ। हम गार्ड को कहकर ताला लगवा देते हैं।’’

‘‘ठीक है।’’ मैंने कहा और गाड़ी से उतर कर गार्ड के कमपार्टमेंट की ओर चल पड़ा। जब तक गार्ड को कम्पार्टमेंट बन्द करने के लिए लाया, मेंरा साथी धोती कुरता पहने, कन्धे पर अँगोछा डाले तैयार खड़ा था। गार्ड ने डिब्बे को चाबी लगाई तो हम ‘डाइनिंग कार’ में एक-दूसरे के सामने जा बैठे। मैंने सोचा, अब परिचय हो जाना चाहिए। इस कारण यात्रा में परिचय करने का स्वाभाविक ढंग अपनाते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘आप कहाँ तक जा रहे है ?’’

‘‘अमृतसर तक।’’

‘‘आप गुजरात के रहने वाले मालूम होते हैं ?’’

‘‘हाँ, परन्तु मैं आपको जानता हूँ। आज कल तो आप दिल्ली में रहते हैं न ?’’

‘‘जी हाँ ?’’

‘‘चिकित्सक-कार्य करते हैं ?’’

‘‘जी।’’

परन्तु मेंरा आपसे परिचय बहुत पुराना है। आप भूल गये हैं। कदाचित् इतने काल की बात स्मरण भी नहीं रह सकती।’’

मुझे हँसी आ गई। अब तक गाड़ी चल पड़ी थी। मुझे हँसता हुआ देख, सामने बैठे यात्री ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘‘इसमें हँसने की क्या बात है ?’’

उसकी मुस्कुराहट में सत्य ही, एक विशेष आकर्षण और माधुर्य था। मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके मुख की ओर देखता रहा। इस पर उसने आगे कहा, ‘‘यह जीव का धर्म है कि काल व्यतीत होने के साथ ही वह अपनी पिछली बातें भूल जाता है। देखिये वैधजी ! इस संसार में इतनी धूल उड़ रही है कि कुछ ही काल में मन मुकुर पर एक अति मोटी मिट्टी की तरह बैठ जाती है, जिससे उस दर्पण में मुख भी नहीं देखा जा सकता।’’

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

1983

Pulisher

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