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परिवर्तन
प्रथम परिच्छेद
“देखो बेटा गौरीशंकर ! जरा मुख में लगाम दो और कुछ भविष्य के विषय में विचार करो। तुम्हारा यह चलन न तो शोभाधुकत है, न ही सुखदायक।”
“पिताजी ! मैंने भविष्य का विचार कर ही यह कार्यारम्भ किया है। रही शोभा और सुख की बात, यह तो अपनी-अपनी दृष्टि है। घर में यह साज़ो-सामान मुझे शोभायुक्त प्रतीत होता है। आपको यह शोभा-युक्त और सुखप्रद प्रतीत नहीं हो रहा। इसमें मैं आपका दृष्टि-दोष ही मानता हूँ।
“साथ ही आपकी और मेरी आवश्यकताओं में अन्तर है। आपकी तो मैं ही एक सन्तात था। परन्तु सरोजिनी ने तो बच्चों की झड़ी लगा दी है। सब बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध उस सरलता से नहीं हो सकता, जिससे एक का हो सकता था।”
विवाद पिता-पुत्र में था। गौरीशंकर का पिता भवानीशंकर रेलवे के दफ्तर में साधारण क्लर्क का काम करता था। सन् 1615 में मैट्रिक पास कर नौकर हुआ था। तब उसको पच्चीस रुपया मासिक वेतन मिलने लगा तो पिता दुनीचन्द ने बहुत सुख अनुभव किया था। उसने पुत्र के प्रथम वेतन लेकर घर आने पर मुहल्ले-भर में लड्डू बाँटे थे।
यद्यपि जर्मनी से प्रथम महायुद्ध आरम्भ हो गया था और अनाज महँगा होने लगा था तो भी पच्चीस रुपया मासिक वेतन ईश्वरीय कृपा का सूचक ही माता जाता था। दुतीचन्द के घर वालों को यह अन्य मुहल्ले के लोगों से भी अधिक सुखदायक और सुविधाजनक अनुभव हुआ था।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 1964 |
Pulisher |
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