Bhartiya Sahitya Evam Samaj Mein Tritiya Lingi Vimarsh
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भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श
विश्व में तृतीय प्रकृति के मनुष्यों का अस्तित्व प्राचीन काल से रहा है। किस काल में कितनी संख्या रही या किस-किस सामाजिक व्यवहारों में उनका कितना योगदान रहा, यह कहना कठिन है किंतु वेद, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि काल से तृतीय प्रकृति के लोगों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वर्तमान समय में पूर्व की तुलना में अन्य लोगों की समस्याओं में वृद्धि के साथ-साथ इनके जीवन में भी समस्याओं की संख्या बढ़ी है, क्योंकि प्राचीन काल से ये समुदाय तीज-त्यौहार एवं अन्य सुवसरों पर नेग आदि माँगकर ही जीवन यापन करता था। मँहगाई की मार से समाज का हर वर्ग प्रभावित है ऐसे में हिजडों, किन्नरों आदि इसकी लपेट से दूर नहीं हैं, बल्कि यों कहा जाए कि इनकी समस्याएँ तो अन्य लोगों से अधिक व्यापक हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
वर्तमान समाज अस्मिता की लड़ाई का समय है। समाज का छोटा से छोटा कहा जाने वाला व्यक्ति भी अपनी अस्तित्व की लड़ाई में अनवरत लगा हुआ है। ऐसे में हिंजड़ा, तृतीय लिंगी समाज भी आज अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगा है और उसी का परिणाम है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इनके पक्ष में निर्णय दिया।
प्रस्तुत पुस्तक निश्चित रूप से सदियों से उपेक्षित, वंचित और हाशिया कृत तृतीय लिंगी समाज के लिए भारतीय समाज एवं साहित्य में विमर्श का नया अध्याय जोड़ने में सक्षम होगी।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher |
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