Ek Tha Shailendra

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Ek Tha Shailendra

Ek Tha Shailendra

350.00 265.00

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Author: Rajendra Yadav

Availability: 5 in stock

Pages: 250

Year: 2009

Binding: Hardbound

ISBN: 9788181435255

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

एक था शैलेन्द्र

आज उस पन्द्रह-सोलह वर्षीय किशोर से मैं साठ वर्ष दूर आ गया हूँ और शायद अब उसे पहचानता भी नहीं हूँ। कौन थे ये युवा ? कैसे थे उनके भावनात्मक द्वन्द्व, सपने, और हतोशाएँ ? वे स्वतन्त्रता मिलते समय ‘आधी रात’ के बच्चे नहीं थे। उनकी सारी दुनिया गुलाम भारत के मुक्ति-संघर्ष के अन्तिम चरणों में बनी-बिगड़ी थी। दूसरा महायुद्ध अन्तिम स्थिति में था – अंग्रेज़ों को पराजित करने वाला हिटलर भारतीय नौजवानों का हीरो था। सुभाषचन्द्र बोस के पलायन की रोमांचक कहानी रोंगटे खड़े कर देती थी। बयालीस का विद्रोह भगतसिंह के दिनों की याद दिला रहा था। देश के लिए कुछ करने के वलवले चैन नहीं लेने देते थे। ख़ुद इस किशोर के भीतर एक तिलस्म था, जहा परस्पर-विरोधी यन्त्र-तन्त्र भरे ‘आश्चर्य’ थे। याद करना मुश्किल है कि उस समय अतीत और वर्तमान के कितने नायक हमें मोहाच्छन्न कर रहे थे। इस पर वल्लभ सिद्धार्थ की बाद में अद्भुत कहानी पढ़ी थी : ‘महापुरुषों की वापसी’। आज क्या सचमुच यह उपन्यास उस तिलस्म की कोई चाबी दे सकता है ?

फूहड़, अनगढ़ अपठनीय भाषा और शिल्प में लिखे गये इस उपन्यास में मुझे उस मानसिक दुनिया को समझने का एक नक्शा दिखाई देता है। तत्कालीन युवा-मन के समाजशास्त्रीय अध्ययन की एक कुंजी के रूप में इसे क्यों नहीं देखा जाना चाहिए ? उस समय स्वतन्त्रता मिलने में दो-ढाई वर्ष की देर थी और वातावरण में आज़ाद हिन्द फौज की गूँज थी। कप्टेन शाहनवाज़, ढिल्‍लों और लक्ष्मी सहगल पर लालकिले में मुकदमे चल रहे थे। बम्बई में नाविक-विद्रोह हो रहा था। सन्‌ बयालीस की क्रान्ति हो चुकी थी – जयप्रकाश नारायण, लोहिया और अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ़ अली फरार थे। जेल तोड़कर भागने की उनकी कहानी रोंगटे खड़े कर देती थी। युवक कुछ भी करने को बेचैन थे – मगर न तैयारी थी न बाहर निकलने के अवसर। उसी समय के एक छोटे से परिवार की यह कहानी कुछ इस तरह है।

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2009

Pulisher

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