Gyan Sutra

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Gyan Sutra

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100.00 99.00

In stock

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Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 4 in stock

Pages: 240

Year: 2017

Binding: Paperback

ISBN: 9788131004388

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

ज्ञान सूत्र

इस पुस्तक में धर्म, संस्कृति और अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों की सूत्र रूप में सरल प्रस्तुति की गई है।

यह पुस्तक समर्पित है उन मनीषियों के श्री चरणों में जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया और प्रयास किया अशब्द को शब्द रूप देने का ताकि सभी सत्य भी अनुभूति से सदा सुखी हों कोई दुखी न रहे !

अपनी बात

वैदिक परंपरा में ‘श्रवण’ का अत्यधिक महत्व है। वेदों का जो स्वरूप आज हमें उपलब्ध है, उसमें उन वेदपाठी ब्राह्मण परिवारों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिन्होंने अपने पूर्वजों से अर्जित ज्ञान को जस का तस अपनी अगली पीढ़ी को दिया। यदि ज्ञान की यह श्रुति परंपरा न होती तो विदेशी आक्रमणकारियों ने वेद-ज्ञान को कब तक खाक में मिला दिया होता। यह श्रुति परंपरा पोथी ज्ञान पर विश्वास नहीं करती, क्योंकि लिखित में होने वाली त्रुटियों की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता।

वेदान्त ग्रन्थों में श्रवण को साधना का प्रारम्भिक आधार मानने के साथ ही उत्कर्ष की स्थिति के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु चरणों में जाकर जिज्ञासु अपनी शंकाओं का समाधान श्रवण साधन (साधना) से ही प्राप्त करता है, और अपनी योग्यता के अनुसार अनुभूति के विभिन्न स्तरों को पार करता हुआ परम सत्य की अनुभूति करता है।

कुछ आचार्यों का मानना है कि योग्य शिष्य को ‘तत्वमसि’ आदि महावाक्यों का श्रवण करने मात्र से आत्मतत्व (अहं ब्रह्माऽस्मि-मैं ब्रह्म हूं) की अनुभूति हो जाती है। इसके अनुसार, मन और निदिध्यासन की आवश्यकता तो उन्हें होती है जिनका अंत:करण शुद्ध नहीं होता। जबकि अन्य इसे स्वीकार हुए कहते है कि ऐसे योग्य शिष्य के लिए नहीं, एक सामान्य जिज्ञासु साधक के लिए मन और निदिध्यासन के रूप में साधनों का व्याख्यान किया है।

ज्ञान को गुह्य रखने के लिए आचार्यों ने उसे सूत्र रूप में प्रस्तुत किया, ऐसा भी कुछ विचारकों का आक्षेप है। लेकिन ऐसा सत्य नहीं लगता। वास्तविकता तो यह है कि शब्दों का प्रयोग जितनी अधिक मात्रा में होता है, अनुभूति का मूल स्वरूप उतना ही बिखर जाता है, वह संकेतार्थ से दूर हो जाता है। शब्द सीधे संकेतार्थ का अनुभव करा दें, इसीलिए सूत्ररूप में आचार्यों ने सत्य को व्यक्त करने का प्रयास किया।

लेकिन जैसे-जैसे परंपरागत जीवन में भौतिकता का पुट बढ़ने के परिणामस्वरूप एकाग्रता में कमी आई, लिखित का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे-वैसे सूत्रों में छिपे गूढ़ और गुप्त को स्पष्ट करने के लिए आचार्यों ने भाष्य लिखे, उन पर अलग-अलग संप्रदाय के विद्वानों ने टीकाएं लिखीं। इन सभी का उद्देश्य सत्य का ग्रहण करना था। यह कार्य स्वयं में एक कठोर साधना और विलक्षण प्रतिभा का परिचायक था। लेकिन ऐसे में अलग-अलग पक्षों के समर्थन में से निष्पक्ष को जान-समझ पाना और दुरुह हो गया। इससे जिज्ञासु साधकों में एक नए भ्रम की स्थिति बनी। उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल हो गया कि सत्यानुभूति के लिए कौन-सा मार्ग सही है। इसीलिए कुछ विचारकों ने विभिन्न भाष्यों-टीकाओं में छिपी भिन्नता से समन्वय के सूत्रों को ढूंढ़ने का प्रयास किया। इनका मानना था कि भाषा की भिन्नता के कारण ही एक सत्य की अभिव्यक्ति विभिन्न रूपों में होती है। एक तरह से भाषा की सार्थकता को इन्होंने मात्र उस सीमा तक स्वीकारा जितना मूल्य उस पत्थर का होता है जिस पर लक्ष्य की ओर जाने का तीर-निशान बना होता है, साथ ही यह संकोच भी होता है कि लक्ष्य कितनी दूर है। इस एकत्व की अनुभूति के लिए ऐसे मनीषियों ने जीवन की साधना पर ज्यादा जोर दिया और साधक द्वारा स्वाध्याय तथा अध्ययन के विस्तृत आकाश में प्रवेश का पक्ष लिया।

आचार्य महामण्डलेश्वर श्री स्वामी अवधेशानंद जी महाराज भिन्नता में एकत्व का प्रतिपादन करने वाले एक ऐसे ही युवा संन्यासी हैं। इन्होंने श्रुति-स्मृति, पुराणेतिहास आदि परम्परागत ज्ञान का अर्जन कर उस पर चिंतन-मनन तो किया ही है, आधुनिक विज्ञान के कारण हुई प्रगति और विश्व के व्यक्ति समाज को भी अपनी खुली आँखों से देखा है। इसकी झलक उनके व्याख्यानों में, बातचीत में स्पष्ट रूप से मिलती है। उनकी भाषा में जहां सागर की गहराई सरीखी गम्भीरता है, वहीं स्वच्छ गंगा का कलकल नाद भी है।

महाराजश्री के मनोज पब्लिकेशन से पूर्व प्रकाशित यह पुस्तक पाठकों की अध्यात्म सराहनीय है। उसी श्रृंखला में यह पुस्तक पाठकों की अध्यात्म जिज्ञासुओं को शांत करती हुई उनके मार्ग को प्रशस्त करेगी, हमारा विश्वास है। सब सुखी हों, इसी कामना के साथ-

 – गंगा प्रसाद शर्मा

सत्य का व्याख्यान करने के बाद श्रुति भगवती कहती है-‘नेति-नेति’-अर्थात् जैसा शब्दों से कहा गया उसे सिर्फ वैसा ही समझने की भूल न कर लेना। वह ऐसा भी है और इससे परे भी है। जो साधक इस सूत्र को धारण कर लेता है।

उपनिषद् साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें शिष्य के समक्ष गुरु ने अपनी ज्ञान-सीमा को स्वीकारते हुए कहा, ‘‘मैं इतना ही जानता हूं। अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तुम अमुक के पास जाओ।’’ यह सद्गुरु की महानता है। वह अपने कर्तव्य को भलीभांति जानता है।

स्वामी रामतीर्थ ने इसीलिए तो कहा था- ‘राम राम बनाता है, शिष्य नहीं।’ शिष्य जिस दिन अपने भीतर के गुरु को जान जाता है, उसी दिन गुरु कृतकृत्य हो जाता है। यही तो सच्ची मुक्ति और स्वतंत्रता की अनुभूति है।

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Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2017

Pulisher

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