Jagannaath Darshan

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Jagannaath Darshan

Jagannaath Darshan

200.00 199.00

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Author: Yogeshwar Tripathi

Availability: 5 in stock

Pages: 264

Year: 2002

Binding: Hardbound

ISBN: 0000000000000

Language: Hindi

Publisher: Bhuvan Vani Trust

Description

जगन्नाथ दर्शन

समर्पण

कैसे वन्दन करूँ देव ! तुम सारे जग के नाथ।

अभिनंदन वंद में वाणी नहीं दे रही साथ।।

तुम असीम का कैसे वर्ण हो वाणी के बल से।

कैसे अर्चन करूँ तुम्हारा अलिदलदलित कमल से।।

रत्नाकर आवास रमा है शुचि सेविका तुम्हारी।

क्या दे तुम्हें मनाऊँ हो जाती मति भ्रमित हमारी।।

राम कृष्ण शिव बुद्ध भैरवी भैरव का थल सुन्दर।

नील चक्र परपतित-पावनी उड़ती ध्वजा मनोहर।।

धर्मपीठ रक्षक स्वरूप हैं महावीर हनुमान।

निशिदिन गाता रहता सागर तव यशगान महान।।

भाव सुमन की मंजुमाल यह जगन्नाथ का दर्शन।

स्वीकारें कर कृपा कर रहा इसको तुम्हें समर्पण।।

 चरणरजानुचर

योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’

मंगलाचरण

भवानी शंकरम् वन्दे नित्यानन्दं जगद्गुरुम्।

कामदं ब्रह्मरूपं च भक्तानामऽभयप्रदम्।।

 

नीलाचल निवासाय नित्याय परमात्मने।

बलभद्र शुभद्राभ्याम् जगन्नाथाय ते नमः।।

 

यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो।

बौद्धाः बुद्ध इति प्रमाण पटवः कर्तेति नैय्यायिकः।।

 

अर्हन् नित्यथ जैन शासनरतो कर्मेति मीमांसकः।

सोयं वो विदधातु वांच्छित फलं त्रैलोक्य नातो हरिः।।

 जगन्नाथ-दर्शन

भूमिका

जीवन यात्रा के आरम्भ और अन्त का किसी को पता नहीं है। यात्रा के मध्य जो पड़ाव आते हैं, वे स्थिर नहीं रह पाते। व्यक्ति कहीं जन्म लेता है, कहीं उसका क्रिया कलाप चलता है और फिर सब कुछ झेलता हुआ भी किस प्रकार पार लगता है, इसे केवल जगत् के नाथ सर्वव्यापी परम प्रभु ही जानते हैं।

श्री योगेश्वर जी त्रिपाठी ‘योगी’ इस मध्यदेश से उत्कल कैसे पहुँचे ? मैं इसे पूर्वजन्म के संस्कारों का परिणाम कहूँगा। न वहाँ जाते, और न उड़िया सीखते और न वहाँ के काव्यों का अध्ययन करते। वे गये, महाप्रभु की कृपा से मंगलमय जगन्नाथ के विविध रूपों में रमे और वहाँ के कवियों की कृतियों को अनुवाद द्वारा हिन्दी–भाषियों को देने में समर्थ हुए। वहाँ की अक्षय़ निधि लेकर अब कानपुर आ गये हैं। उन्होंने बहुत लिखा है। प्रस्तुत ग्रन्थ ‘जगन्नाथ-दर्शन’ उनका उत्कल यात्रा से प्राप्त अनमोल रत्न है।

योगेश्वर जी ‘योगी’ होने के साथ नाम द्वारा उस परात्पर स्वामी का भी स्मरण कराते हैं जो सब के साथ युक्त हैं और सबको जोड़ भी रहे हैं। कुरसवाँ का त्रिपाठी परिवार हमें अमूल्य निधियाँ देता रहा है।

योगी जी के परिवार के साथ मेरा निकट का संपर्क रहा है। अतः उनकी रचनाओं को पढ़कर मैं आनन्द लाभ करता हूँ।

‘जगन्नाथ दर्शन’ पुरी का भौगोलिक एवं ऐतिहासिक दर्शन तो कराता ही है, साथ ही वहाँ के विश्वविख्यात मंदिर की पूरी परिचर्या भी उपस्थित कर रहा है। भारत के सभी मनीषी इस मंदिर से प्रभावित हुए हैं। उनके संस्मरण तो इस ग्रन्थ में अंकित हैं ही, पर जो विदेशियों के इस मंदिर से संम्बन्धित विवरण लेखक ने अंकित किये हैं, वे और भी अधिक मनमोहक है।

‘जगन्नाथ दर्शन’ को पढ़कर सभी पाठक लाभान्वित होंगे। योगी जी ने जो सामग्री इस ग्रन्थ द्वारा हमें दी है, वह जगन्नाथ जी के दर्शन के साथ, उनका छुआछूत से दूर प्रसाद भी दे रही है। इस प्रसाद के लिए में पं. योगेश्वरजी त्रिपाठी को भूरि-भूरि साधुवाद देता हूँ।

आचार्य मुंशी राम शर्मा ‘सोम’

आत्म निवेदन

श्री जगन्नाथ जी की संस्कृति के मूल प्रतीक हैं। निखिल ब्रह्माण्ड उनकी सृष्टि ही। सभी प्राणी उसकी ही सन्तान हैं। उस अखिल नियन्ता परमात्मा की सर्जना को आत्मीय दृष्टि से प्रेम करना ही उसकी सच्ची उपासना है। यह विचार अपने बाल्य जीवन में मुझे अपने प्रतिमाह पण्डित शिव प्रसाद जी त्रिपाठी से विरासत में मिले। वह एक उच्चकोटि के भक्त थे। उर्दू फारसी और अंग्रेजी के अधिकृत विद्वान् थे।

अपने जिलेदार के आग्रह से ज़मीदारी के कागज़ों को देखने के लिए छत्तीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने हिन्दी सीखी। सन्तों का आवागमन। सन्तों का आवागमन उनके यहाँ प्रायः वर्ष भर रहता था। वे दयालु प्रकृति के थे। साधु-सन्तों की सेवा, परोपकार, उदारता एवं प्रेम उनके जीवन के प्रधान अंग बन चुके थे। अपने जीवन का उत्तरार्ध तो उन्होंने बड़ी सादगी से व्यत्त किया। मुझे भाग्यवश बाल्यकाल में उन्हीं की संरक्षता मिली। सन्तों की कृपा से तुलसीकृत रामायण के वे विशिष्ट अधिकारी बन गए थे। यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि श्री रामचरितमानस उन्हें सिद्ध हो गया था तथा कानपुर में मानस-प्रचार में उनका विशेष योगदान रहा। बचपन में वे ही धर्म और संस्कृति के बीज मेरे कानों में पड़ते रहे जो समय पाकर मेरे हृदय में अंकुरित हुए।

हमारी माता जी तथा दादीजी को भी धर्म में सुदृढ़ विश्वास था वे प्रति वर्ष चैत्र मास के सोमवारों को श्री जगन्नाथ जी की पूजा बड़ी श्रद्धा और भक्ति से किया करती थीं। बाल्यजीवन में उनके मुख से सुना हुआ संत कबीर का भजन आज तक मेरे हृदय पटल पर ज्यों का त्यों अंकित है।

‘‘स्वामी भले बिराजे जी-

उड़ीसा जगन्नाथ पुरी

में भले बिराजे जी।।

कबसे छोड़ी मथुरा नगरी,

कबसे छोड़ी काशी।

झारखण्ड में आन बिराजे

वृन्दावन के वासी।।। स्वामी…

उड़िया माँगै खीचड़ी

बंगाली माँगै भात।

साधु माँगै दरसन

महापरसाद।। स्वामी….

नीलचक्र पर ध्वजा विराजै

मस्तक सोहै हीरा।

स्वामी आगे दासी नाचै

गावैं दास कबीरा।।

स्वामी….

जब मैंने अपनी चेतना सम्हाली तो इस पद की गहराई में घुसा। वृन्दावन छोड़ने की बात तो समझ में आई किन्तु काशी छोड़ने की बात समझ के बाहर थी। धीरे-धीरे समय बीतने लगा। अध्ययन के उपरान्त राउरकेला इस्पात कारखाने में मेरी नौकरी लग गई। साहित्यिक अभिरुचि के कारण अपने कार्यकाल में ही मैंने उड़िया भाषा का अध्ययन किया। भगवान की परमकृपा तथा गुरुजनों के आशीर्वाद से कई उड़िया खण्डकाव्यों को हिन्दी में मैंने रूपान्तरित किया। उड़िया साहित्य में महाप्रभु जगन्नाथ जी के विषय में बहुत कुछ पढ़ने का सौभाग्य मिला। जगन्नाथ-संस्कृति के अध्ययन के समय कबीर के पद में आई हुई पंक्ति- ‘‘कबसे छोड़ी मथुरा नगरी, कबसे छोड़ी काशी’’—का रहस्य भी खुला। मेरे मन में श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा जाग उठी। संयोग कुछ ऐसा बना कि अल्काल में ही भुवनेश्वर जाना पड़ा। वहाँ अचानक ही श्री हृदयानन्द राय जी से भेंट हो गई।

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Authors

Binding

Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2002

Pulisher

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