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Description
साधक-साधन
॥श्रीरामः शरणं मम॥
भूमिका
भगवान् शंकर के अन्तःकरण की अभिव्यक्ति ही मानस है एवं उस मानसरोवर में सतत् निवास करने वाले राजहंस हैं “परमपूज्य श्री रामकिंकरजी महाराज”। आप गोस्वामी तुलसीदासजी के साहित्य की व्याख्या नीर-क्षीर विवेक प्रस्तुत करते हुए साधना एवं सिद्धान्तों की अभूतपूर्व, अद्भुत एवं व्यावहारिक विवेचना लोकार्पित करते हैं, जिसके द्वारा सहदय समाज न केवल मनोवृत्तियों को निर्मल बना लेता है, अपितु रामकथा के दिव्यरस से स्वयं को आपूरित कर जीवन कृतकृत्य कर लेता है। तुलसी-साहित्य के दिव्य भाष्यकार परमपृज्य महाराजश्री हैं।
वेदान्तशास्त्र को यथार्थतः हृदयंगम कर पाना सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है, परन्तु महाराजश्री के भाष्यों का रसास्वादन करने के समनन्तर ऐसा प्रतीत होता है कि वेदान्त का निर्गुण-निराकार ब्रह्म सगुण-साकार रूप में मूर्तिमान होकर अपने रहस्यों को स्वयं उद्घाटित कर रहा है। जीवन दर्शन एवं वेदान्तशास्त्र की हव्याख्या गोस्वामीजी की रामकथा की महती विशिष्टता हैं।
महाराजश्री की प्रतीकात्मक विवेचना के गम्भीर रहस्यों को हृदयंगम करने के समान ही राम-कथा में ‘संशय’ की समस्या का समाधान स्वयंसिद्ध होता है। महाराजश्री के भाष्यों में जब मनोवृत्तियों की तुलना मानस के पात्रों से की जाती है तो विश्वास होने लगता है कि गोस्वामीजी ने भगवान् राम के मंगलमय वर्णन के साथ-साथ अन्तःकरण के समस्त रूपों की भी पारदर्शी व्याख्या प्रस्तुत कर दी है। फलतः ऐसा सिद्ध होने लगता है कि गोस्वामीजी का साहित्य सूत्र है और पूज्य महाराजश्री गोस्वामीजी के समग्र साहित्य के भाष्यकार किंवा भाष्य ही हैं। जब भाष्यकार भाष्य के एवं भाष्य भाष्यकार के रूप में परिवर्तित हो जाता है तो सहृदय समाज को सन्तृष्टि प्राप्त ही होती है।
सिद्धान्त एवं व्यवहार के भेद से ग्रन्थ दो प्रकार के होते हैं। सिद्धान्त-ग्रन्थ में सिद्धान्तों का प्रतिपादन होता है तथा व्यवहार-ग्रन्थ में सिद्धान्तों को व्यावहारिक स्तर प्रदान कराने की यथासम्भव चेष्टाएँ की जाती हैं। साधना किन मनोवृत्तियों में सम्भव है ? इस तथ्य के निरूपण के साथ-साथ साधकों की साधना के उत्कृष्ट एवं स्पष्ट दृष्टान्त भी यहाँ देखे जा सकते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में स्थूल-साधना का वर्णन नहीं है, वर्णन तो साधक की मनोवृत्तियों का है जो साधना के लिए प्राण स्वरूप हैं।
महाराजश्री की वाणी उनके प्रवचनों के संग्रह एवं उनके द्वारा स्वतः लिखित ग्रन्थों के रूप में विद्यमान है। प्रस्तुत ग्रन्थ महाराजश्री द्वारा स्वतः लिखित है। प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित सभी तथ्य भी महाराजश्री द्वारा स्वयं अनुभूत हैं, परिणामतः सच्चे साधकों के लिए पूर्ण व्यावहारिक हैं।
नाम, रूप, लीला एवं धाम के रूप में प्रभु के चार विग्रह स्वीकार किये गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रभु के चारों विग्रहों का रहस्य आवरणरहित रूप में व्याख्यायित है। साधना-काल में व्यक्ति के भावों के सापेक्ष होने की महती आवश्यकता होती है, उन उपेक्षाओं के निर्माण के लिए अनुकूल मानसिक वातावरण का सृजन साधक के लिए संजीवनी औषधि है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मानसिक वातावरण की सर्जना के लिए नाम, रूप, लीला एवं धाम का साधन के रूप में स्पष्टीकरण है।
प्रभु के नाम-विग्रह की साधना का स्पष्टतम भाष्य करते हुए महाराजश्री ने निरूपित किया है कि जनमानस यथा कथचित् नामोच्चारण को महत्त्व प्रदान करता है, परन्तु नाम-मंत्र के अर्थ की भावनाओं में अलोडन-विलोडन करना ही सार्थक नाम-साधना है-जपस्तदर्थभावनम्।
रूप-विग्रह की साधना में प्रेम एवं वासना के अन्तर की विशद व्याख्या है। भगवान् का विग्रह वासना की सृष्टि नहीं करता। भगवान् के दिव्यरूप का दर्शन करके ज्ञान में लीन अथवा ब्रह्मलीन विदेह एवं सनकादि भी आकृष्ट होते हैं जो उनके सौन्दर्य की पूर्णता की ओर संकेत करता है। भगवद्रूप को आत्मसात् करने का उद्देश्य अन्तःकरण को निर्मल बनाना है। ध्यान की पद्धति से हृदय निर्माण की प्रक्रिया ही रूप-साधना का रहस्य है।
लीला-विग्रह की साधना की व्याख्या में राक्षसों को मोहित करने वाली एवं भक्तों को सुख प्रदान करने वाली प्रभु की द्विविध लीला है। भक्तों के सन्दर्भ में भगवान् की दिव्य रसमयी लीला का रहस्य ही लीला-साधना का उद्देश्य है।
धाम-विग्रह का वर्णन करते हुए महाराजश्री कहते हैं कि अपने मन को भावना में सराबोर कर देने का उत्तम स्थान धाम है। अन्तःकरण में एवं बाह्य स्थलों पर भी प्रभु का सहज दर्शन जीवन की वास्तविक परिपूर्णता है। सांसारिक व्यक्ति का जीवन अन्तर्मुखी न होकर बहिर्मुखी होता है, अतः बाह्य जीवन में प्रभु का दर्शन न होना जीवन की अपूर्णता ही है, ऐसे रहस्यों का अद्भुत वर्णन प्रस्तुत निबन्ध में वर्णित है।
उपर्युक्त रहस्यात्मक निबन्धों के साथ-साथ प्रस्तुत ग्रन्थ में भक्त, भक्ति, सिद्ध-भक्त-कवि एवं मानस में श्रृंगार आदि चार निबन्ध और हैं, जिसमें तुलसी साहित्य के सिद्धान्तों की संगति एवं बोध के स्तर पर उनकी सहज एवं सरल व्याख्या है। इसके अतिरिक्त महाराजश्री ने गोस्वामीजी के साहित्य के अध्ययन की व्यावहारिक एवं भावमयी दृष्टि भी प्रदान की है। स्वान्तः सुखाय भक्ति का आमूल-चूल विवेचन गोस्वामीजी का लक्ष्य है। अतः इस ग्रन्थ का समग्र निरूपण भक्ति के सन्दर्भ में ही किया गया है।
मैं रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्ष पूज्यनीया दीदी मंदाकिनी श्री रामकिंकरजी के प्रति अपना प्रणाम और अभिवादन निवेदन करता हूँ कि जिनके सत्-प्रयोजन से पूज्य महाराजश्री का वाङ्मय अभी भी पुष्पित और पल्लवित हो रहा है। यह महाराजश्री के विराट् रूप का परिचय तो है ही साथ ही उन भावनाओं का साकार रूप भी है, जिसके द्वारा आदर्श और भावनाएँ व्याख्यायित होती हैं।
– डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी
अनुक्रम
★ नाम-साधना
★ रूप-साधना
★ धाम-साधना
★ लीला-साधना
★ भक्त
★ भक्ति
★ सिद्ध-भक्त-कवि
★ मानस का श्रृंगार
Additional information
Binding | Hardbound |
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Authors | |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Pulisher | |
Publishing Year | 2003 |
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