Manas Charitavali – 1

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Manas Charitavali – 1

Manas Charitavali – 1

380.00 375.00

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380.00 375.00

Author: Sriramkinkar Ji Maharaj

Availability: 5 in stock

Pages: 374

Year: 2022

Binding: Paperback

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Ramayanam Trust

Description

मानस चरितावली – 1

।। श्रीराम: शरणं मम ।।

भूमिका

पिछले कुछ वर्षों में श्रीराम और महाभारत के काल-क्रम को लेकर अन्तहीन विवाद चलता रहा है। एक ओर राम एवं कृष्ण के सम्बन्ध में हमारी आस्तिक धारणा है तो दूसरी ओर पुरातत्व और इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि। इन दोनों कभी सामंजस्य हो भी नहीं सकता। इसे मैं संग्रहालय और मन्दिर की दृष्टि कहना चाहूँगा। संग्रहालय और मन्दिर में स्थित प्रतिमाओं में कितना साम्य, पर कितनी दूरी ! संग्रहालय की मूर्ति पर दृष्टि जाते ही काल कलाकार और कला की स्मृति आती है। बहुधा इन प्रतिमाओं के साथ परिचय-पट्ट प्राप्त होता है, उसे हम ध्यान से देखते हैं। उसे पढ़कर हमारी काल-सम्बन्धी जिज्ञासा तृप्त होती है। कलाकार की कलागत सूक्ष्मताओं को देखकर व्यक्ति चकित हो जाता है।

शिल्पकार के कौशल की सराहना करता है। वहाँ से संग्राहलय देखने का गर्व लेकर लौटता है। कभी-कभी इन मूर्तियों का वर्तमान मूल्य भी आँका जाता है और मूल्य के आँकड़ों विस्मय की सृष्टि करते हैं। मन्दिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमा के समक्ष पहुँचकर दर्शनार्थी श्रद्धा के नत हो जाता है। उसका आराध्य इष्टदेव होता है। उसकी जिज्ञासा काल, कलाकार और कला को लेकर नहीं होती क्योंकि मन्दिर में स्थित देवता उसके लिए भूत नहीं वर्तमान होता है। उसकी दृष्टि में वह जड़ पाषाण या धातु न होकर चैतन्य तत्त्व है। इसीलिए उसका सारा व्यवहार भी चैतन्य की भाँति होता है। वह अपने इष्ट का श्रृंगार करता है। उसके समक्ष पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य अर्पित करता है। वह कभी नहीं पूछता कि इसका निर्माता कौन-सा कलाकार है क्योंकि वह अपने इष्ट को ही सृष्टि का रचयिता मानता है, और मूल्य पूछने की धृष्टता तो वह कर ही नहीं सकता। वह देवता के चरणों में द्रव्य अर्पित करता है पर उसका सम्बन्ध मूल न होकर उसकी सामर्थ्य की सीमाओं से है। इसलिए उसके समपर्ण में साधारण धातु की मुद्रा से लेकर स्वर्ण-मुद्रा या हीरक हार तक हो सकता है। मन्दिर गर्व लेकर नहीं, उसे खोकर लौटता है। संग्रहालय में हमें वह दिखाई देता है जो दृष्टिगोचर हो रहा है। मन्दिर अगोचर को गोचर बनाने के लिए है।
व्यावहारिक दृष्टि से मन्दिर में जो कुछ भी है, वह काल, कलाकार और कला से ही सम्बन्धित है। इसे ही बुद्धिवादी सत्य कहेगा। पर आध्यात्मिक दृष्टि से यह खण्ड सत्य है। शिल्पकार मूर्ति का निर्माता है, यह सर्वथा स्थूल और अधूरा सत्य है। शिल्पकार स्वयं ही किसी अज्ञात रचयिता की कृति है उसमें जो चेतना और सामर्थ्य दिखाई देती है उसका मूल स्रोत कहाँ है ? निर्माण से पहले उसके मन में जो भावमयी मूर्ति प्रकट होती है उसकी सृष्टि कौन करता है ? वस्तुतः मूर्तिकार अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। इन समस्त अभिव्यक्तियों के पीछे जो एक चिन्मय तत्त्व है वह अखण्ड सत्य है। वह चैतन्य तत्त्व शाश्वत है इसलिए वह कब व्यक्त दिखाई देता है इसका बहुत महत्त्व नहीं है। कालातीत ही काल विशेष में दिखाई देता है। सीमित में असीम को, जड़ में चैतन्य को तथा काल में कालातीत को खोज लेना ही आस्तिक दृष्टि है। मन्दिर इसी दृष्टि का प्रतीक है।

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2022

Pulisher

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