Naam Mahima

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Naam Mahima

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Author: Sriramkinkar Ji Maharaj

Availability: 4 in stock

Pages: 208

Year: 2015

Binding: Paperback

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Ramayanam Trust

Description

नाम महिमा

प्रथम प्रवचन

भगवान् श्रीरामभद्र की महती अनुकम्पा से इस वर्ष भी यह सुअवसर मिला है कि संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट और संगीत कला मन्दिर के तत्त्वाधान में आयोजित इस कार्यक्रम में प्रभु के मंगलमय ‘राम’ नाम की ‘महिमा’ का वर्णन करें। अभी श्री बिन्नानीजी ने स्मरण दिलाया कि यह परम्परा 29 वर्षों से चल रही है और स्वयं में एक उपलब्धि है। मुझे प्रसन्नता है कि आप लोग आज भी उसमें उतनी ही रसानुभूति पाते हैं जितनी प्रारम्भ में आपको मिली थी। उसमें पुरातनता के द्वारा उत्पन्न होनेवाली विरति की कोई वृत्ति आप में दिखाई नहीं देती। सचमुच रामकथा है ही ऐसी ! और मेरे जीवन में रामकथा किसी प्रयत्न के कारण नहीं है। वक्ता के रूप में दिखाई देनेवाला व्यक्ति तो एक निमित्तमात्र है। प्रभु ही इस वाणी के माध्यम से स्वयं के रहस्य को प्रकट करते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।

श्री बिन्नानीजी ने अभी जो मेरे प्रति भावोद्गार प्रकट किए वे हमारी भारतीय परम्परा की श्रद्धा-भावना से जुड़े हुए हैं। गोस्वामी जी को भी जब वाल्मीकि का अवतार कहा गया, तब उन्होंने भी यही कहा कि कितनी विलक्षण बात है कि- ‘तुलसी सो सठ मानियत महा मुनि सो।’ मुझ जैसे दुष्ट व्यक्ति को भी लोग वाल्मीकि के रूप में देखते हैं। और जब कोई व्यक्ति मुझे उस रूप में देखता है जिसकी ओर श्री बिन्नानीजी ने संकेत किया तो मैं उसे अस्वीकार नहीं करता, पर मेरी मान्यता इस विषय में यही है कि कभी तुलसीदास ने रामकथा का निर्माण किया था और अब अगर रामकथा तुलसीदासों का निर्माण करे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यह महिमा वस्तुत: रामकथा की ही है।

प्रारम्भ में मैं कुछ पंक्तियाँ मानस की पढ़ूँगा जिनकी व्याख्या आपके समक्ष की जायेगी-

राम एक तापस तिय तारी।

नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।

रिषि हित राम सुकेतसुता की।

सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।।

सहित दोष दुख दास दुरासा।

दलइ नामु जिमि रिबि निसि नासा।।

भंजेउ राम आपु भव चापू।

भव भय भंजन नाम प्रतापू।।

दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।

जन मन अमित नाम किए पावन।।

निसिचर निकर दले रघुनंदन।

नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ।। 1/24।।

अभी जो पंक्तियाँ आपके सामने पढ़ी गयीं वे मानस में ‘नाम वन्दना’ प्रसंग की हैं।

हमारे भक्ति शास्त्र की ऐसी मान्यता रही है कि भगवान् के चार विग्रह हैं- नाम, रूप लीला और धाम। इसका अभिप्राय है कि नाम के रूप में भी ईश्वर ही है, आकृति के रूप में भी ईश्वर ही है और कथा तथा धाम के रूप में भी ईश्वर ही है। और इन चार में से चारों का अथवा एक का भी आश्रय लेनेवाला व्यक्ति जीवन में कृत्कृत्यता का अनुभव कर सकता है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में इन चारों महिमा का वर्णन किया है सभी के स्वरूप का ऐसा महद्वर्णन है कि उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग आकर्षण की अनुभूति होती है।

यह जिज्ञासा लोगों के अन्त:करण में स्वाभाविक होती रही है कि स्वयं गोस्वामीजी ने किस साधना के द्वारा अपने जीवन में धन्यता तथा पूर्णता प्राप्त की और इस विषय में श्रीरामचरितमानस तथा विनय-पत्रिका में गोस्वामीजी बार-बार एक ही बात दोहराते हैं। जिस समय तक तुलसीदास जी की महिमा देश भर में बहुत बढ़ चुकी थी। उनके साथ चमत्कारों की अनेक गाथाएँ जुड़ गयी थीं। उस समय उनसे भी लोगों ने यह पूछा कि आप अपनी सिद्धि का रहस्य बताइये। पर जब उन्होंने ‘राम’ शब्द का उपयोग किया तो सुननेवाला अविश्वास की दृष्टि से उन्हें देखने लगा क्योंकि सुननेवाले के मन में किसी रहस्यपूर्ण साधना की धारणा थी कि तुलसीदासजी ने ऐसी कोई अद्भुत साधना की होगी या कोई विकट तपस्या की होगी जिसके परिणाम स्वरूप उनके जीवन में इतनी सिद्धियां आ गयीं।

‘राम’ नाम को सुनकर व्यक्ति को यह लगना स्वाभाविक था कि ये नन्हें-से दो अक्षरों वाला शब्द जिससे हम लोग भली-भाँति परिचित हैं, भला ! उसके लिये यह कहना ‘राम-नाम’ के द्वारा ही मेरे जीवन में पूर्णता प्राप्त हुई है, शायद यह छिपाने की परम्परा का परिचायक है। हमारे देश में अपनी साधना को छिपाने की परम्परा भी बड़ी पुरानी रही है। प्रारम्भ में गोस्वामीजी के प्रति भी लोगों को यही सन्देह हुआ। और तब विनय-पत्रिका में उन्होंने भगवान् शंकर की शपथ लेकर विश्वास दिलाने की चेष्टा की। वे कहते हैं कि मेरा आग्रह यह नहीं है कि यही बात ठीक है। लेकिन हाँ इतना अवश्य है कि-

प्रीति प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो। वि.प. 226

मनुष्य के अन्त:करण में जिस साधना के प्रति विश्वास होता है, जिस साधना में प्रीति होती है उस व्यक्ति का कल्याण उसी साधना के द्वारा होता है। पर यदि आप मुझसे पूछते हैं कि मेरा कल्याण कैसे हुआ तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि-

संकर साखि जो राखि कहौं कुछ, तौं जरि जीह गरो। वि.प. 226

अगर मैंने कुछ भी छिपाने की चेष्टा की है तो मेरी जिह्वा गलकर या जलकर गिर जाए। मेरा स्वयं का अनुभव यही है कि-

अपनो भलो राम नामहिं सों तुलसिहि समुझि परो।। वि.प.226

मेरा भला तो राम-नाम के द्वारा ही हुआ है। इन शब्दों में जिस आग्रह से वे नाम के प्रति अपनी आस्था को प्रकट करते हैं वह अपने आप में ही अद्वितीय है। इसको यों कहें कि जैसे आयुर्वेद शास्त्र में अनेक औषधियाँ हैं, और उन सभी औषधियों के गुण हैं, पर यदि कोई व्यक्ति औषधि की प्रशंसा करने के साथ-साथ यह कहे कि पुस्तकों में लिखा गया है कि इन औषधियों में ये गुण है, तो शब्द सुननेवाले के मन में उत्साह और प्रेरणा तो होगी लेकिन बहुत अधिक नहीं। पर अगर आपका कोई विश्वस्त व्यक्ति यह कहे कि इस औषधि का सेवन मैंने स्वयं करके देखा है और मुझे इससे लाभ हुआ है तो सामने वाले व्यक्ति के मन में इससे बड़ी प्रेरणा मिलती है।

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Binding

Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2015

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