Patthar Ke Bench

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Patthar Ke Bench

Patthar Ke Bench

295.00 225.00

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Author: Chandrakant Devtale

Availability: 10 in stock

Pages: 115

Year: 2021

Binding: Hardbound

ISBN: 9788183619851

Language: Hindi

Publisher: Radhakrishna Prakashan

Description

पत्थर की बेंच

समसामयिक हिन्दी कविता में जहाँ एक ओर बहुत सारे युवा और प्रौढ़ कवि हैं जिन्हें एक तालिका या सूची में गिनाया जाता है, और उनकी एकरसता को देखते हुए यही उचित और सम्भव भी है, वहाँ चंद्रकांत देवताले उन थोड़े से कवियों में से हैं जो पिछले तीन दशकों से भी अधिक से कविताएँ लिखते हुए हर वर्गीकरण को करुण साबित करते रहे हैं और अपनी एक नितांत निजी किन्तु केन्द्रीय पहचान बनाए हुए हैं। यूँ तो आरज की हिन्दी कविता के मिजाज को मुक्तिबोध के अहसास के बिना समझा नहीं जा सकता लेकिन 1960 से भी पहले से अपने ढंग से लिखते हुए चंद्रकांत देवताले आज उन अगले मुकामों पर खड़े दीखते हैं जो शमशेर, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों ने सम्भव बनाए हैं।

चंद्रकांत देवताले की ये कविताएँ किसी साँचे या कार्यक्रम में ढली नहीं हैं बल्कि वे दूसरों के दिए गए और वक्त-जरूरत स्वयं अपने भी काव्य-अजेंडा को तोड़ती हैं। चूँकि चंद्रकांत ने कविताएँ लिखना उस समय शुरू किया था जब प्रतिबद्ध होने के लिए किसी कार्ड या संघ की जरूरत नहीं हुआ करती थी इसलिए वे भारतीय समाज तथा जनता से जन्मना तथा स्वभावतः जुड़े हुए हैं। उनकी कविता की जड़ें बेहद निस्संकोच रूप से हमारे गाँव-खेड़े, कस्बे और निम्न मध्यवर्ग में हैं और वहीं से जीने और लड़ने की प्रेरणा प्राप्त करती हैं और वह जीवन इतना वैविध्यपूर्ण और स्मृति बहुल है कि कविता के लिए वह कभी कम नहीं पड़ता।

चंद्रकांत देवताले की मौलिक प्रतिबद्धता इसीलिए हिन्दी के अवसरवादी गिरोहों और प्रमाणपत्र-उद्योग को और हास्यास्पद बना देती है। दरअसल – चंद्रकांत जैसे कवि अपने सृजनात्मक शक्ति-स्रोतों के आगे इतने विवश रहते हैं कि उन्हें अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के अलावा कुछ भी और परेशान नहीं करता। एक वजह यह भी है कि चंद्रकांत देवताले ने मानव-जीवन और अस्तित्व को कभी भी एक-आयामीय नहीं समझा है इसलिए उनकी इन कविताओं में, और पिछली कविताओं में भी, जहाँ भारतीय समाज और राजनीति की तमाम विडम्बनाओं और कुरूपताओं के विरुद्ध एक खुला गुस्सा है वहीं परिवार, मित्रों, कामगारों, बच्चों और चीजों की आत्मीय उपस्थिति भी है। इनके साथ-साथ चंद्रकांत ने अपना एक निहायत व्यक्तिगत जीवन जीने और मानव-अस्तित्व की कुछ चुनौतियों पर चिंतन करने के अपने एकांत अधिकार को बचाए रखा है और इसीलिए इन कविताओं में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के कई ऐसे हवाले और आयाम मिलेंगे जो हिन्दी कविता में दुर्लभ हैं। जिस प्रेम या ‘ऐन्द्रिकता’को एक खोज की तरह कविता में वापस लाने के दावे कहीं-कहीं किए जा रहे हैं वह चंद्रकांत देवताले की पिछले तीन दशकों की रचना धर्मिता में एक प्रमुख सरोकार तथा लक्षण रहा है और यदि अंतिम परिवर्तन मृत्यु है तो उस पर भी चंद्रकांत देवताले ने बिना रुग्ण हुए कुछ अद्वितीय कविताएँ लिखी हैं। काव्य-भाषा और शिल्प पर भी जाएँ तो चंद्रकांत देवताले की यह नवीनतम कविताएँ एक अत्यंत सुखद विकास का प्रमाण हैं। अपनी अंतरंग रचनाओं में कवि की भाषा अब अधिक से अधिक पारदर्शी हुई है और उसमें साठ और सत्तर के दशक की सघनता और गठीलापन समय और अनुभव के प्रवाह से मँजकर एक विरल संगीतात्मकता तक पहुँचे हैं।

चंद्रकांत देवताले अपनी समष्टिपरक कविताओं में हमेशा सीधे सम्बोधन की भाषा के कायल रहे हैं और वैसी रचनाओं में उनके शब्द और मारक तथा लक्ष्यवेधी हुए हैं। उनके कुछ बिम्ब और कूट शब्द जैसे पत्थर, चट्टान, चाकू समुद्र आदि इन कविताओं में भी लौटे हैं लेकिन ज्यादा निखर कर। ‘लैब्रेडोर’ कविता श्रृंखला में चंद्रकांत देवताले ने सजगता और संघर्ष का एकसर्वथा नया तथा सार्वजनिक माध्यम चुना है जबकि ‘गाँव तो नहीं स्व सकता थामेरी हथेली पर’ तथा ‘नागझिरी’ जैसी कविताओं में वे अपने अनुभव और पाठक के बीच किसी भी अलंकरण को नहीं आने देते। ये लम्बी कविताएँ हैं और स्मरणदिलाती हैं कि ‘भूखंड तप रहा है’ जैसी रचना का यह सूजेता हिन्दी के उन बहुत कम कवियों में से है जिनसे लम्बी कविता भी सध पाती है। हिन्दी कविता के इन दिनों में जब दुर्भाग्यवश अधिकांश प्रतिभाशाली युवा और अधेड़ कवि भी बहुत जल्दी अपनी – सम्भावनाओं के सीमांत पर पहुँच रहे लगते हैं, चंद्रकांत देवताले की ये कविताएँ अपने प्रतिबद्ध गुस्से की बार-बार धधकती उपस्थिति, गहरी मानवीयता और मर्मस्पर्शिता तथा निजी रिश्तों, संकटों, चिन्ताओं की स्वीकारोक्तियों की सदानीरा वैविध्यपूर्ण जटिलता से उन पर लौटने को बाध्य करती हैं।

‘आग’ चंद्रकांत के प्रिय बिम्बों में से है और उनकी कविता ठीक आग की तरह हिन्दी की अधिकांश रही कविता और आलोचना को राख कर देती है और अपनी जाज्वल्यमान उपस्थिति स्वीकारने पर बाध्य करती है। जिन कवियों को समझे बिना बीसवीं सदी की हिन्दी कविता का कोई भी आकलन बौद्धिक दारिद्य से विकलांग माना जाएगा, चंद्रकांत देवताले उनमें से एक रोमांचक, अमिट हस्ताक्षर हैं।

– वित्त खरे

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Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2021

Pulisher

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