Shri Markandey Puran

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Shri Markandey Puran

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100.00 99.00

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Author: Yogeshwar Tripathi

Availability: 5 in stock

Pages: 160

Year: 2005

Binding: Hardbound

ISBN: 0000000000000

Language: Hindi

Publisher: Bhuvan Vani Trust

Description

श्री मार्कण्डेय पुराण

स्वोक्ति

ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं यह बात यथार्थ है। केवल उपदेशों से ज्ञान का नीरस लगने वाला विषय आज के युग में जबकि हर व्यक्ति प्रातः से सन्ध्या तक दौड़ भाग कर अर्थ संयम में लगा है, उसके लिये वृहद् ग्रन्थ पढ़ने का न तो समय है और न रुचि ही रही है। जीवन की इन उलझनों से व्यथित होकर सभी भाग रहे हैं। चाहे वह ज्ञानी हो या संसारी हो; ज्ञानी मैं मैं के पीछे भाग रहा है। भक्त तू तू के पीछे भाग रहा है और संसारी तू तू मैं मैं में फंस कर भाग रहा है। इस अवस्था पर गम्भीरता से चिन्तन करके ऋषि महर्षियों सन्तों ने कुछ सामयिक परिवर्तन किये ! ज्ञानोदेशों के सूत्रों को कथाओं में पिरोकर उन्हें द्रष्टान्त परक बना कर सामने रखा। तब लोगों की रुचि उन्हें पढ़ने की बढ़ने लगी। पुराण शास्त्र तर्क अथवा प्रमाण द्वारा जाँच पड़ताल का विषय नहीं है उनमें घटित घटनाओं से अपनी स्थिति का मिलान करके उनसे उपयोगी ज्ञान के रत्नों को चुनकर अपने जीवन में सुधार लाना ही श्रेयस्कर एवं लाभप्रद है। कथाओं के श्रवण से अशिक्षित लोग भी समुचित ज्ञानार्जन करके लाभान्वित हो सकते हैं। उनकी मानसिकता बदलने में का यह सार्थक उपाय है। बिना स्वस्थ मानसिकता के समाज में विसंगतियाँ ही बढ़ती हैं।

प्राचीन काल में वैदिक ज्ञान केवल मौखिक रूप से एक से अपर को मिलता रहा। फिर आगत काल में इसका लेखन भोजपत्रों तथा बांस की खपच्चियों पर लिखा जाने लगा। ऐसे दुर्लभ ग्रन्थ उड़ीसा में हमें कई स्थानों पर देखने को मिले। कुछ ग्रन्थ भोजपत्रों पर और कुछ ग्रन्थ बांस की पतली खपाचों पर नुकीली तीलियों से उकेरे अक्षरों में बड़ी सुन्दरता से लिखे दो किनारों पर छेदों में डोरे से पिरोये टंगें दिखाई दिये। मध्ययुग में श्रमिक वर्ग कृषि कार्यरत लोग, सेवा करने वाले उस ज्ञान से वंचित रहने लगे। तब सन्तों ने पुराण कथाओं के अनुष्ठान करके कथा के माध्यम से वह ज्ञान उन्हें रसमय मधुर पेय के समान पिलाना प्रारम्भ किया, लोक कल्याणार्थ मनुष्योपयोगी ज्ञान पौराणिक कथाओं को लीलाओं के द्वारा उन तक पहुँचाने की परम्परा डाल दी।

पौराणिक गाथाओं में प्रवाहित ज्ञान ही शाश्वत सत्य है। शेष उस तथ्य के प्रतिपादन के लिए सुनियोजित किया गया है। धर्म के अर्थ, अर्थ से काम एवं मोक्ष को प्राप्त करके लोग सुख प्राप्त करते हैं। मूल में धर्म ही है। धारण करने योग्य वस्तु का नाम ही धर्म है जिससे कल्याण ही होता है। धर्म के प्रति उदासीन रहने वाले पतन की ओर अग्रसर होते हैं जबकि धर्म का मार्ग ऊपर उठाने वाला है। धर्म की तुलना मजहब या संप्रदाय से करना बड़ी भूल है। धर्म सबके लिए समान होता है चाहे वह किसी जाति वर्ग अथवा सम्प्रदाय का हो। वह धर्म ही सच्चा मानव धर्म है। जो पुराणों की कथाओं में नियोजित मिलता है।

आज के आपाधापी भरे युग में वृहद् कलेवर के ग्रन्थ पढ़ने का भी लोगों के पास समय नहीं है। लोगों की रुचि (Site at a glance) की ओर हो चुकी है। अतः ‘‘भुवन वाणी ट्रस्ट’’ के मुख्य न्यासी सभापति श्री विनय कुमार अवस्थी के आग्रह पर मूल ग्रन्थ के छः हजार आठ सौ निन्यानबे श्लोकों के सार भाग को लेकर ‘श्री मार्कण्डेय पुराण’ की संक्षिप्त गाथा लिखी गई। अल्प समय में ही पाठक पुराण के सम्यक ज्ञान को आत्मसात् करने से लाभान्वित हो सके तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा। इसी मंगल कामना के साथ यह संक्षिप्त ‘श्री मार्कण्डेय पुराण’ जनता जनार्दन के कर कमलों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। गुरुदेव की परम कृपा से यह कार्य मेरे द्वारा हो पाया एतदर्थ उनके पावन चरणों में शतशत नमन्।

गुरुचरणाश्रित

योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’

मंगलाचरण

 

भवानी शंकरं बन्दे नित्यानन्दं जगद्गुरूम्।

कामदं ब्रह्मरूपं च भक्ता नाम्ऽभय प्रदम्।।

 

सावित्री त्वं महामाया वरदे ज्ञान रूपिणी।

राधा शक्ति संयुक्ता प्रसीद परमेश्वरी।।

 

सावित्री वल्लभं वन्दे जयदयाल कृपानिधे।।

देहि में निर्भरा भक्तिं योगी त्वच्चरणाश्रितः।।

 

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

 

।।श्री सद्गुरु परमात्मने नमः।।

नारायणं नमस्कृत्य नरंचैव नरोत्तम।

देवी सरस्वती व्यासं ततोजय मुदीरयेत्।।

 

जैमिनि-मार्कण्डेय-संवाद

महान् वेदज्ञ श्री मार्कण्डेय को सहज स्थित में अवस्थित देखकर एक समय महर्षि जैमिनि ने प्रणाम करके उनसे महाभारत से सम्बन्धित कुछ शंकाओं पर प्रकाश डालने की प्रार्थना करते हुए कहा हे महात्मन् ! मधुर छन्दालंकारों में वर्णित अर्थ धर्म काम मोक्षादि शास्त्रों के निगूढ़ रहस्यों से प्रतिपादित इस अत्यन्त पावन महाभारत ग्रन्थ को पढ़कर कुछ शंकायें मेरे मन में उत्पन्न हो रही हैं। आप उन्हें कृपया समाधान करके मुझे बोध प्रदान करने की कृपा करें। अखिल ब्रह्माण्ड नियन्ता निराकार से नराकार कैसे बना ? द्रौपदी पाँच पाण्डवों की पत्नी बन गईं। पतियों से रक्षित उसके पुत्रों की असम अनाथों की भाँति मृत्यु आदि कुछ प्रश्न मुझे व्यथित कर देते हैं। मार्कण्डेय जी ने उन्हें समझाते हुए कहा कि इसके समाधान के लिये मेरे पास समयाभाव है। अतः आप विन्ध्य पर्वत की गुफाओं में रहने वाले द्रोणपुत्र पिंगाक्ष विवोध सुपुत्र और सुमुख आदि के पास जाइये। यह सारे पक्षी श्रेष्ठ और वेद वेदांग के ज्ञाता हैं।

समुचित रूप से यह सभी आपको बोध प्रदान करने में समर्थ हैं। इस पर जैमिनि आश्चर्य के साथ बोले कि यह द्रोण कौन हैं ? क्या पक्षी मानव भाषा बोलने में समर्थ हैं ? तब मार्कण्डेय जी बोले एक समय देवर्षि नारद इन्द्र की सभा में उपस्थित हुए। देवराज ने उनका समादार करते हुए उन्हें आसन पर बिठा कर कहा हे ब्राह्मन ! यदि आप आदेश दें तो सभा में अप्सराओं का नृत्य प्रारम्भ हो। कुछ सोचकर नारद जी ने कहा कि रम्भा तिलोत्मा मिश्रकेशी मेनका उर्वशी आदि नृत्यांगनाओं में जो सर्वाधिक रूपसी एवं गुणवती हो उसका नृत्य प्रारम्भ हो। तब नृत्यांगनाओं में सर्वश्रेष्ठता के प्रति विवाद होते देख देवराज ने इसका निर्णय नारद पर ही छोड़ दिया। नारद ने नृत्यांगनाओं से कहा कि जो भी ध्यानमग्न महर्षि दुर्वाषा को अपनी ओर आकर्षित कर लेगी वही सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी तथा गुणवती होगी। यह प्रस्ताव सुनकर सभी पीछे हट गईं। तब वपु नामक नृत्यांगना ने यह बीड़ा उठा लिया।

अत्यन्त शीघ्रता से परम सुन्दरी नृत्यांगना वपु हिमालय की सुरम्य घाटी में अवस्थित महर्षि दुर्वासा के आश्रम में जा पहुँची। कुछ दूरी पर एक वृक्ष की डाली पर बैठकर उसने महर्षि दुर्वासा का ध्यान भंग करके अपनी ओर उन्हें आकर्षित करने के लिये कोकिल कण्ठी तान छोड़ दी। सुमधुर स्वरलहरी से उनका ध्यान भंग हो गया। वह क्रोध से आविष्ठ होकर इधर-उधर द्रष्टिपात करने लगे। कुछ ही दूरी पर अनिन्द्य रूपसी वपु को देखते ही उन्होंने शाप देते हुए कहा अरी दुर्बुद्धे ! तू सोलह वर्षों तक मेरे शाप से पक्षी कुल में जन्म लेगी। तेरे चार पुत्र होंगे। सन्तान-सुख से वंचित रहेगी फिर शास्त्राघात से मृत्यु को प्राप्त कर स्वर्ग चली जावेगी।

यथा समय अरिष्ट नेमि के पुत्र पक्षिराज गरुण के पुत्र सम्पाती के वायु के समान तीव्र गति वाला बलवान पुत्र, सुपार्श्व का पुत्र, कुन्ती का पुत्र एवं प्रलोलुप के कंक और कन्धर दो पुत्र उत्पन्न हुए। एक समय कंक उड़ते हुए कैलाश पर जा पहुँचा। वहाँ पर उसने कुबेर के सेवक विद्युद्रूप नामक राक्षस को अपनी समलंकृत सुन्दरी पत्नी के साख शिला खण्ड पर बैठकर मद्यपान करते हुए देखा। कंक को देख उस राक्षस ने गर्जन करते हुए कहा अरे नीच पक्षी ! मेरे पत्नी के साथ एकान्तिक स्थान में तुझे प्रवेश करने का साहस कैसे हुआ ? तब कंक बोला कि तुम्हारे समान इस पर्वत राज पर अन्य प्राणियों का भी समान अधिकार है।

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Hardbound

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Language

Hindi

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Publishing Year

2005

Pulisher

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