Upanishadon Ki Kahaniyan

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Upanishadon Ki Kahaniyan

Upanishadon Ki Kahaniyan

80.00 79.00

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80.00 79.00

Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 5 in stock

Pages: 168

Year: 2018

Binding: Paperback

ISBN: 9788131012260

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

उपनिषदों की कहानियाँ

उपनिषद् आत्मविद्या अथवा ब्रह्मविद्या को कहते हैं। वेदों के अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। वेदांत संबंधी श्रुति-संग्रह ग्रंथों के लिए भी ’उपनिषच्छब्द’ का प्रयोग होता है।

उपनिषद् शब्द ’उप’ और ’नि’ उपसर्ग तथा ’सद्’ धातु के संयोग से बना है। ’सद्’ धातु का प्रयोग ’गति’ अर्थात् गमन, ज्ञान और प्राप्त करने के संदर्भ में होता है। सद् धातु के तीन अन्य अर्थ भी हैं-विनाश, गति अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना और शिथिल करना। इस प्रकार उपनिषद् का अर्थ हुआ-’’जो ज्ञान पाप का नाश करे, सच्चा ज्ञान प्राप्त कराए, आत्मा के रहस्य को समझाए तथा अज्ञान को शिथिल करे।’’

अष्टाध्यायी में इसका प्रयोग ’रहस्य’ के अर्थ में किया गया है। इसी तरह कौटिल्य ने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ-’कौटिल्य अर्थ शास्त्र’ में युद्ध के गुप्त संकेतों की चर्चा करते हुए ’औपनिषद्’ शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि इसका संबंध ’रहस्य ज्ञान’ से है।

उपनिषद् वेदों के ज्ञानकांड हैं। ये चिरप्रदीप्त वे ज्ञान दीपक हैं जो सृष्टि के आदि से ही प्रकाश देते चले आ रहे हैं और प्रलय पर्यंत प्रकाशित होते रहेंगे। इनके प्रकाश में वह अमरत्व है जिसने सनातन धर्म के मूल का सिंचन किया है। ये जगत कल्याणकारी भारत की ऐसी निधि हैं जिनके सम्मुख विश्व का प्रत्येक स्वाभिमानी सभ्य राष्ट्र श्रद्धा से नतमस्तक हो रहा है और होता रहेगा।

अपौरुषेय वेदों के अंतिम परिणाम रूप ये उपनिषद् ज्ञान के आदिस्रोत और ब्रह्म विद्या के अक्षय भंडार हैं। वेद-विद्या के चरम सिद्धांतों का प्रतिपादन कर ’उपनिषद् जीव को अल्पज्ञान से अनंत ज्ञान की ओर, अल्पसत्ता और सीमित सामर्थ्य से अनंत सत्ता और अनंत शक्ति की ओर, जगत के दुखों से अनंत आनंद की ओर तथा जन्म-मृत्यु के बंधनों से अनंत स्वतंत्रतामय शांति की ओर ले जाते हैं। ये बंधनों को तोड़ते ही नहीं, उन्हें अस्वीकार कर देते हैं।

उपनिषदों का ज्ञान हमें सद्गुरुओं से प्राप्त होता है। वैसे तो अधिकारी, अनधिकारी पर विचार न करके स्वेच्छया ग्रंथ रूप में उपनिषदों का कोई भी अध्ययन कर सकता है, किंतु इस प्रकार किसी को ब्रह्म-विद्या की प्राप्ति नहीं हो सकती। जिज्ञासा को इसके लिए अत्यंत आवश्यक योग्यता माना गया है। जिज्ञासा ही तो ज्ञान का आधार है। लेकिन यह जिज्ञासा बच्चों की तरह कौतूहल से पैदा नहीं होनी चाहिए। ब्रह्म जिज्ञासा का आधार विवेकपूर्वक वैराग्य हुआ करता है। उपनिषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है, जिसमें सच्ची जिज्ञासा होती है, आत्मा उसी का वरण करता है-नावृतो दुश्चरितान् नाऽशांतो नाऽसमाहित:।

साधन-संपत्तिहीन और वासनावासित अंतःकरण में ब्रह्म विद्या का प्रकाश नहीं होता। जिस प्रकार मलिन वस्त्रों पर रंग ठीक प्रकार से नहीं चढ़ता और जिस प्रकार बंजर भूमि में, जहां लंबी-लंबी जड़ों वाली घास पहले से ही जमी हुई है, धान का बीज अंकुरित नहीं होता और यदि वह अंकुरित हो भी जाए तो फलता नहीं बिल्कुल उसी प्रकार वासनापूर्ण अंतःकरण में ब्रह्मविद्या के उपदेश का बीज अंकुरित नहीं होता और यदि वह अंकुरित हो भी जाए तो उसमें आत्मनिष्ठा रूपी वृद्धि और जीवन मुक्ति रूपी फल की प्राप्ति कभी नहीं होती।

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Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2018

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