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Description
बदलते जमाने का आगाज ?
इस उपन्यास के प्रथम भाग की भूमिका में हमने संक्षिप्त रूप में यह बताने का यत्न किया था कि भारत की दासता का कारण एक ओर तो बौद्ध-जैन मीमांसा तथा दूसरी ओर नवीन वेदान्त है। जहाँ बौद्ध-जैन मतावलम्बी भारत के जन-मानस को वेदों से पृथक् करने के लिए यत्नशील रहे, वहाँ नवीन वेदान्तियों ने जन-मानस को वेदों से दूर तो नहीं किया, परन्तु वेदों को जन-मानस से दूर कर दिया।
हमारा अभिप्राय यह है कि वेदों के स्थान पर उपनिषद और गीता को लाकर प्रतिष्ठित कर दिया। यह एक विडम्बना-सी प्रतीत होती है कि स्वामी शंकराचार्यजी ने अपने प्रस्थानत्रयी के भाष्य में अनेक स्थलों पर वेद-संहिताओं को कर्मकाण्ड की पुस्तकें कह कर उन्हें केवल अज्ञानियों के लिए स्वर्गारोहण के निमित्त बताया है। परन्तु किसी भी स्थल पर संहिताओं का प्रमाण नहीं दिया। एक ढंग से चारों वेदों को, जिनका नव-संकलन श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी ने किया था, उन्होंने अनादर की वस्तु बना कर केवल उपनिषदों को ही परम ज्ञान की वस्तु सिद्ध करने का ही प्रयास किया है।
इस प्रकार अनजाने में अथवा जानबूझकर श्री शंकराचार्य जी ने वही कुछ किया जो बौद्ध और जैन मतावलम्बियों ने किया। अर्थात् भारत के जन-मानस को वैदिक साहित्य से पृथक् करके रख दिया। इतिहासवेत्ता यह भी जानते हैं कि श्री गौड़पादाचार्य और श्री शंकराचार्यजी के जन्म से पूर्व ही हिन्दू सनातन-धर्म ने इस देश के बौद्धों को निष्कासित कर दिया था। इन महानुभावों ने तो तत्कालीन हिन्दू-धर्म में बौद्ध-धर्म की मूल बात, कि वेदों को छोड़ो, का पुनः समावेश ही किया था और इसी कारण कई विद्वान् इन दोनों को प्रच्छन्न अर्थात् छिपे हुए क्रियाशील बौद्ध ही मानते हैं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
Language | Hindi |
Publishing Year | 2020 |
Pulisher | |
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