Shri Vishnu Puran

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Shri Vishnu Puran

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Author: Yogeshwar Tripathi

Availability: 5 in stock

Pages: 160

Year: 2002

Binding: Hardbound

ISBN: 0000000000000

Language: Hindi

Publisher: Bhuvan Vani Trust

Description

श्री विष्णु पुराण

प्रस्तुत श्री विष्णु पुराण में भी इस ब्राह्मण्ड की उत्पत्ति, वर्णन व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापकता, ध्रुव, प्रह्लाद, वेनु, पृथु आदि राजाओं के वर्णन एवं उनकी जीवन गाथा, विकास की परम्परा, कृषि गोरक्षा आदि कार्यों का संचालन, भारत आदि नौ खण्ड मोदिनी, सप्त सागरों के वर्णन, अद्यः एवं अर्द्ध लोकों का वर्णन, चौदह विद्याओं, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, कश्यप, पुरुवंश, कुरुवंश, यदुवंश के वर्णन, कल्पान्त के महाप्रलय का वर्णन आदि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है।

 

स्वोक्ति

ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं यह बात यथार्थ है। केवल उपदेशों से ज्ञान का नीरस लगने वाला विषय आज के युग में जब कि हर व्यक्ति प्रातः से सन्ध्या तक दौड़ भाग कर अर्थ संयम में लगा है, उसके लिये वृहद् ग्रन्थ पढ़ने का न तो समय है और न रुचि ही रही है। जीवन की इन उलझनों से व्यथित होकर सभी भाग रहे हैं। चाहे वह ज्ञानी हो भक्त हो या संसारी हो ! ज्ञानी मैं मैं के पीछे भाग रहा है। भक्त तू तू के पीछे भाग रहा है और संसारी तू तू मैं मैं में फंस कर भाग रहा है। इस अवस्था पर गम्भीरता से चिन्तन करके ऋषि-महर्षियों सन्तों ने कुछ सामयिक परिवर्तन किये ! ज्ञानोदेशों के सूत्रों को कथाओं में पिरोकर उन्हें द्रष्टान्त परक बना कर सामने रखा। तब लोगों की रुचि उन्हें पढ़ने की बढ़ने लगी। पुराण शास्त्र तर्क अथवा प्रमाण द्वारा जाँच पड़ताल का विषय नहीं है उनमें घटित घटनाओं से अपनी स्थिति का मिलान करके उनसे उपयोगी ज्ञान के रत्नों को चुनकर अपने जीवन में सुधार लाना ही श्रेयस्कर एवं लाभप्रद है। कथाओं के श्रवण से अशिक्षित लोग भी समुचित ज्ञानार्जन करके लाभान्वित हो सकते हैं। उनकी मानसिकता बदलने का यह सार्थक उपाय है। बिना स्वस्थ मानसिकता के समाज में विसंगतियाँ ही बढ़ती हैं।

प्रस्तुत श्री विष्णु पुराण में भी इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापकता, ध्रुव प्रह्लाद, वेनु, आदि राजाओं के वर्णन एवं उनकी जीवन गाथा, विकास की परम्परा, कृषि गोरक्षा आदि कार्यों का संचालन, भारत आदि नौ खण्ड मेदिनी, सप्त सागरों के वर्णन, अद्यः एवं अर्द्ध लोकों का वर्णन, चौदह विद्याओं, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, कश्यप, पुरुवंश, कुरुवंश, यदुवंश के वर्णन, कल्पान्त के महाप्रलय का वर्णन आदि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है।

पौराणिक गाथाओं में प्रवाहित ज्ञान ही शाश्वत सत्य है। शेष उस तथ्य के प्रतिपादन के लिए सुनियोजित किया गया है। धर्म के अर्थ से काम एवं मोक्ष को प्राप्त करके लोग सुख प्राप्त करते हैं। मूल में धर्म ही है। धारण करने योग्य वस्तु का नाम ही धर्म है जिससे कल्याण ही होता है। धर्म के प्रति उदासीन रहने वाले पतन की ओर अग्रसर होते हैं जबकि धर्म का मार्ग ऊपर उठाने वाला है। धर्म की तुलना मजहब या संप्रदाय से करना बड़ी भूल है। धर्म सबके लिए समान होता है चाहे वह किसी जाति वर्ग अथवा सम्प्रदाय का हो। वह धर्म ही सच्चा मानव धर्म है। जो पुराणों की कथाओं में नियोजित मिलता है।

आज के आपाधापी भरे युग में वृहद् कलेवर के ग्रन्थ पढ़ने का भी लोगों के पास समय नहीं है। लोगों की रुचि (Site at a glance) की ओर हो चुकी है। ‘श्री विष्णु पुराण’ की संक्षिप्त गाथा लिखी गई। अल्प समय में ही पाठक पुराण के सम्यक ज्ञान को आत्म सात् करने से लाभान्वित हे सके तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा। इसी मंगल कामना के साथ यह संक्षिप्त ‘श्री विष्णु पुराण’ जनता जनार्दन के कर कमलों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव कर रही हूँ। गुरुदेव की परम कृपा से यह कार्य मेरे द्वारा हो पाया एतदर्थ उनके पावन चरणों में शतशत नमन्।

गुरुचरणाश्रित

योगेश्वर त्रिपाठी योगी

 

वन्दना

नारायणं नमस्कृत्य नरंचैव नरोत्तमम्।

देवीम् सरस्वतीम् वन्दे ततो जय मुदीरयेत्।।

 

भवानी शंकरं वन्दे नित्यानन्दं जगद् गुरुम्।

कामदं ब्रह्मरूपं च भक्तानाम् अभयप्रदम्।।

 

सावित्री त्वं महामाया वरदे कामरूपिणी।

राधा शक्ति संयुक्ता प्रसीद भुवनेश्वरी।।

 

सावित्री वल्लभं वन्दे जयदयाल कृपानिधे।

देहि में निर्भरा भक्तिं योगी त्वच्चरणास्त्रितः।।

 

श्री विष्णु-पुराण

मैत्रेय-पाराशर-वार्ता

प्राचीन काल में महर्षि मैत्रेय ने श्री पाराशर मुनि के आश्रम में जाकर उन्हें प्रणाम किया फिर स्वस्थ चित्त से सत्संग प्रारंभ हुआ। मैत्रेय ने कहा, हे महात्मन् ! मेरे मन में कुछ प्रश्न उठ रहे हैं उन्हीं के उत्तर की अकांक्षा से मैं आपके दर्शन करने चला आया। आप अपने श्री मुख से अमृत वर्षा करके मुझे कृतार्थ करने की कृपा करें। इस संसार की उत्पत्ति कैसे हुई। पहले यह किसमें लीन था। प्रलय काल में किसमें लीन होगा। पंच महाभूत, भूमि, वन, पर्वत, देव, मानव तथा मन्वन्तर के विषयों पर आप प्रकाश डाल कर मेरी जिज्ञासा शान्त कीजिये।

तब प्रसन्न होकर महर्षि पाराशर बोले हे, महात्मन् ! यह प्रसंग मेरे पितामह वशिष्ठ जी तथा पुलस्त्य जी से मैंने सुना था। मैं आपकी जिज्ञासा यथासम्भव शान्त करूँगा। आप पूर्णमनोयोग से सुनें। प्राचीन काल में विश्वामित्र की प्रेरणा से मेरे पिता को एक राक्षस ने खा डाला था जिससे मेरा क्रोध बढ़ गया था। शोक एवं क्रोधावेश में आकर मैंने राक्षसों का विनाश करने के लिये एक यज्ञ अनुष्ठित किया। यज्ञाहुतियों के साथ सैकड़ों राक्षस जल कर भष्म होने लगे। तब मेरे दादा वशिष्ठ जी ने मुझसे समझाते हुए कहा हे वत्स ! क्रोध का त्याग करो। इन राक्षसों का क्या दोष ? तुम्हारे पिता के भाग्य का लेख ही ऐसा था। ज्ञानी को क्रोध शोभा नहीं देता। मारना जिलाना ईश्वर के आधीन है भले ही निमित्त कोई भी बन जाय। यज्ञ को यहीं विराम दो ! क्षमा साधु का भूषण होता है।

उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने यज्ञ बन्द कर दिया। मेरे दादा वशिष्ठ जी मुझ पर प्रसन्न हुए। उसी समय पुलस्त्य जी भी वहाँ आ गए। वशिष्ठ जी ने उनका अभिवादन करते हुए उन्हें अर्ध्य देकर आसन प्रदान किया। फिर बातों-बातों में मेरे विषय में भी बता दिया। तब पुलस्त्य जी ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा कि तुमने अपने पितामह की आज्ञा मानकर क्षमा का आश्रय लिया। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूँ कि सम्पूर्ण सास्त्रों का ज्ञान तुम्हें सहज ही हो जाएगा और तुम पुराण संहिता की रचना करोगे तथा तुम्हें ईश्वर के यथार्थ रूप का ज्ञान हो जायेगा। पूर्वर्ती काल में उन दोनों ऋषियों के वर के प्रभाव से मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया। यह संसार विष्णु के द्वारा उत्पन्न किया गया वही इसके पालक हैं तथा प्रलय में यह उन्हीं में लय हो जाता है।

सृष्टि का उद्भव

महर्षि पाराशार ने कहा हे मुनीश्वर ! ब्रह्मा रूप में सृष्टि विष्णु रूप में पालन तथा रुद्र रूप में संहार करने वाले भगवान विष्णु को नमन करता हूँ। एक रूप होते हुए भी अनेक रूपधारी, अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त रूप वाले, घट घट वासी अविनाशी पुरुषोत्तम को नमस्कार करते हुए मैं आपके द्वारा पूछे गए प्रश्नों के विषय में कहने जा रहा हूँ।

भगवान नारायण त्रिगुण प्रधान तथा विष्ण के मूल है। वह अनादि हैं। उत्पत्ति लय से रहित हैं। वह सर्वत्र तथा सबमें व्याप्त हैं। प्रलय काल में दिन था न रात्रि, न पृथ्वी न आकाश, न प्रकाश और न अन्धकार ही था। केवल ब्रह्म पुरुष ही था। विष्णु के निरूपाधि रूप से दो रूप हुए। पहला प्रधान और दूसरा पुरुष। विष्णु के जिस अन्य रूप द्वारा वह दोनों सृष्टि तथा प्रलय में संयुक्त अथवा वियुक्त होते हैं उस रूपान्तर को ही काल कहा जाता है। बीत चुके प्रलय काल में इस व्यक्त प्रपंच की स्थित प्रकृति में ही थी।

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Hardbound

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Hindi

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Publishing Year

2002

Pulisher

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